दूसरा, ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’. पंजाब में जाटों का जितना दबदबा
पंजाब चुनाव में कौन से बड़े प्लेयर हैं जो मैदान में हैं?
कपूरथला/चंद्रशेखर कालिया: पंजाब में वोटिंग के मुख्यत: दो आधार हैं. “पहला है, ‘दिल माँगे मोर’ का फ़ंडा, यानी हर पार्टी अपनी अपनी तरफ़ से मुफ़्त योजनाओं और वादों की झड़ी लगा देती है. जैसे इस बार आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को हर महीने 1000 रुपये देने का वादा किया है तो कांग्रेस ने 2000 रुपये देने का वादा कर दिया. दूसरा है, ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’. पंजाब में जाटों का जितना दबदबा है, उतना कहीं नहीं है. यहां हिंदू या दलित होना अहम नहीं है, लेकिन जाट होना अहम है.” इस खांचे में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार फि़ट बैठते हैं. चूंकि बाकी दलों ने अपने मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा नहीं की है, इसलिए उनके बारे में नहीं कहा जा सकता. पंजाब चुनाव को लेकर सियासी हलचल एक बार फिर तेज़ है.
आम आदमी पार्टी ने अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर भगवंत मान के नाम की घोषणा कर दी है. वहीं कयास लगाए जा रहे हैं कि पंजाब में कांग्रेस का सीएम चेहरा चन्नी ही होंगे ? हालांकि आधिकारिक तौर पर कांग्रेस की तरफ़ से इसकी कोई पुष्टि नहीं हुई है. लेकिन जिस हिसाब से कांग्रेस ने पिछले साल कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम की कुर्सी पर बिठाया था और उनके दलित होने को एक बड़ा ‘यूएसपी’ करार दिया था, उससे इस कयास को सिरे से ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता है. ऐसे में पंजाब चुनाव अगर ‘चन्नी बनाम मान’ हुआ तो क्या बातें होंगी जो मायने रखेंगी ? इस सवाल का जवाब जानने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि इस बार पंजाब चुनाव में कौन से बड़े प्लेयर हैं जो मैदान में हैं ?
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के अलावा, बीजेपी से नाता तोड़ कर अकाली दल और बीएसपी गठबंधन मैदान में है. वही पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया है. इतना ही नहीं किसान आंदोलन में शामिल रहे 22 संगठनों ने भी संयुक्त समाज मोर्चा (एसएसएम) के बैनर तले चुनाव लडऩे का फ़ैसला किया है. इस आधार पर पंजाब के राजनीतिक जानकार कहते हैं कि इस बार विधानसभा चुनाव में पाँच पार्टियों की लड़ाई है.
अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तो पिछला चुनाव भी लड़े थे, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह और किसानों की पार्टी ने मुक़ाबले को और पेचीदा बना दिया है. हाल के दिनों में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता कम हुई है क्योंकि भगवंत मान को मुख्यमंत्री बनाने के लिए महज़ 21 लाख लोगों ने वोट डाले जबकि पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी के लिए 36 लाख लोगों ने वोट किया था. अगर उनकी लोकप्रियता बढ़ी होती तो 36 लाख से ज़्यादा लोगों को मुख्यमंत्री के नाम पर मुहर लगाने के लिए हुए वोट में हिस्सा लेना चाहिए था. वहीं राजनीतिक जानकार मानते हैं कि पंजाब में मुक़ाबला दो पार्टियों, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच है. बीजेपी और कैप्टन अमरिंदर सिंह के गठबंधन या फिर अकाली दल को वह रेस में नहीं मानते.
राजनीतिक जानकार अकाली दल के बारे में वह कहते हैं कि पंजाब की जनता के बीच अब एक भाव है कि अकाली दल एक ही परिवार की पार्टी बन कर रह गई है. वहाँ नेतृत्व की दिक़्क़त है. लेकिन साथ में इतना ज़रूर जोड़ते हैं कि कुछ सीटों पर संयुक्त समाज मोर्चा (एसएसएम) आम आदमी पार्टी का खेल बिगाड़ सकता है. पिछली विधानसभा में कई ऐसी सीटें थीं जहाँ जीत का अंतर 500-1000 वोट का था. इसलिए वह इस चुनाव को ‘चन्नी बनाम मान’ मान रहे हैं.पंजाब में वैसे तो दलित वोट 32-34 फ़ीसद के आसपास है. जबकि जाट सिखों की आबादी 25 फ़ीसद के आसपास की ही है. चरणजीत सिंह चन्नी की पहचान दलित सिख की है और भगवंत मान की जाट सिख की. इन आँकड़ों के लिहाज से एक नजऱ में लगता है कि चन्नी, मान पर भारी पड़ सकते हैं. लेकिन पंजाब की राजनीति इतनी आसान नहीं है. राजनीतिक जानकार का मानना है कि धर्म और जाति के आधार पर पंजाब वोट नहीं करता. यहां की राजनीति उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति से अलग है.
पंजाब में दलित एक वोट बैंक नहीं हैं. इस वजह से पंजाब में दलित वोट बैंक के तौर पर एकजुट नहीं हो पाए. हर विधानसभा चुनाव में दलितों का वोट लगभग हर पार्टी को मिलता है. यही वजह है कि बहुजन समाज पार्टी जो पंजाब में दलित वोट बैंक अपने साथ करने आई थी वो कभी कामयाब नहीं हो पाई. पंजाब से जो पार्टी बनी उसे उत्तर प्रदेश में जाकर शरण लेनी पड़ी. पंजाब में बीएसपी का सबसे अच्छा प्रदर्शन 1992 में रहा था जब उन्हें 9 प्रतिशत वोट मिले थे. उसके बाद से उनका ग्राफ़ पंजाब में नीचे जाता रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें दो फ़ीसद से भी कम वोट मिले थे. पिछले चार विधानसभा चुनाव से बीएसपी, पंजाब में एक भी सीट नहीं जीत पाई है. कांग्रेस अगर मुख्यमंत्री का चेहरा चरणजीत सिंह चन्नी को बनाती है, तो ‘साइकोलॉजिकल स्पिन’ हो सकता है, लेकिन ‘दलित वोट बैंक’ एजेंडा नहीं बन सकता.
पंजाब में सिख भी बंटे हुए हैं. सिख हिंदू भी हैं, सिख दलित भी हैं, सिख ईसाई भी हैं. इसके अलावा डेरा और जत्थे भी होते हैं. उनके बाबा और गुरुओं के अपने अनुयायी होते हैं. दलितों ने कभी एकजुट होकर दलित वोट बैंक के तौर पर वोट नहीं किया है. पंजाब की राजनीति में कई परतें हैं, पंजाब के दलित सिख आमतौर पर अकाली दल के साथ नजऱ आते हैं और हिंदू दलित कांग्रेस के साथ नजऱ आते हैं. 2017 में भी इसी पैटर्न पर वोट हुआ था. हालांकि 2012 में हिंदू दलितों ने अकालियों का साथ दिया था. इस वजह से माना जा रहा है कि चरणजीत सिंह चन्नी को अगर कांग्रेस आधिकारिक तौर पर मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करती है, तो उनको थोड़ा फ़ायदा मिल सकता है.पंजाब वोट किस आधार पर करता है ? लेकिन किसी पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा दलित नहीं होगा तो क्या कोई ख़ास फर्क़ पड़ेगा ? इस सवाल का जवाब जानने के लिए ये समझना ज़रूरी है कि आखऱि पंजाब की जनता वोट कैसे करती है?
पंजाब में वोटिंग के मुख्यत: दो आधार हैं. “पहला है, ‘दिल माँगे मोर’ का फ़ंडा. यानी हर पार्टी अपनी अपनी तरफ़ से मुफ़्त योजनाओं और वादों की झड़ी लगा देती है. जैसे इस बार आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को हर महीने 1000 रुपये देने का वादा किया है तो कांग्रेस ने 2000 रुपये देने का वादा कर दिया. दूसरा है, ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’. पंजाब में जाटों का जितना दबदबा है, उतना कहीं नहीं है. यहां हिंदू या दलित होना अहम नहीं है, लेकिन जाट होना अहम है. इस खांचे में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार फि़ट बैठते हैं. चूंकि बाकी दलों ने अपने मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा नहीं की है, इसलिए उनके बारे में नहीं कहा जा सकता.पंजाब के वोटिंग पैटर्न पर राजनीतिक जानकार कहते हैं कि पंजाब में ना तो दलित, दलित की तरह वोट करता है और ना हिंदू, हिंदुत्व पर वोट करता है. अगर ऐसा होता तो अरुण जेटली कभी पंजाब से चुनाव नहीं हारते. बीजेपी अकेले भी जब पंजाब में लड़ती थी, तब भी वोट बैंक छह फ़ीसद से ज़्यादा नहीं ला पाई. पंजाब, भारत की सबसे सेक्युलर सोसाइटी में से एक है. यहां मुद्दों पर चुनाव लड़े जाते हैं, जहाँ बेरोजग़ारी से लेकर खेती, किसानी और बेअदबी का मुद्दा भी बनता है, लेकिन जाति और धर्म मुख्य मुद्दे नहीं होते. हालांकि वह मानते हैं राजनीतिक दलों द्वारा जाति और धर्म को मुद्दा बनाने की कोशिश होती रहती है पर जनता में हिंदू बनाम सिख जैसा ध्रुवीकरण नहीं होता है.