पंजाब में दलितों की आबादी 32 फीसदी है और यह 58 विधानसभा हलकों में सीधा प्रभाव
1967 के बाद पंजाब में गैर जट कभी मुख्यमंत्री नहीं बना
कपूरथला/चंद्रशेखर कालिया: 1967 के बाद पंजाब में गैर जट कभी मुख्यमंत्री नहीं बना। दरअसल पंजाब में 34 आरक्षित सीटें हैं, जिनमें रविदासिया समाज, भगत बिरादरी, वाल्मीकि भाईचारा, महजबी सिख का खासा वोट बैंक है। सीएम चन्नी रविदासिया बिरादरी से हैं। पंजाब में सभी दलों की एकजुटता के कारण पंजाब के विधानसभा चुनाव अब 14 फरवरी के बजाय 20 फरवरी को होंगे। पंजाब में दलितों की आबादी 32 फीसदी है और यह 58 विधानसभा हलकों में सीधा प्रभाव डालती है। यही वजह है कि पंजाब में अब राजनीतिक दलों में इसका श्रेय लेने की होड़ मची हुई है।
कांग्रेस ने दलित कार्ड चुनाव की घोषणा के पहले ही खेल दिया था। पहली बार है जब एससी वर्ग पंजाब की सियासत के केंद्र में है। सियासी दल शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस 18 फीसदी जट सिखों पर ही दांव लगाते रहे हैं। मगर इस बार सबकी नजर 32 फीसदी दलित वोट बैंक पर है। 1967 के बाद पंजाब में गैर जट कभी मुख्यमंत्री नहीं बना। दरअसल पंजाब में 34 आरक्षित सीटें हैं, जिनमें रविदासिया समाज, भगत बिरादरी, वाल्मीकि भाईचारा, महजबी सिख का खासा वोट बैंक है। सीएम चन्नी रविदासिया बिरादरी से हैं।भाजपा भी पंजाब में दलित कार्ड खेलने जा रही थी, लेकिन कांग्रेस ने जैसे ही सीएम चरणजीत सिंह चन्नी को घोषित किया, भाजपा ने दलित सीएम पर यू टर्न ले लिया और कहा कि अब सीएम चेहरे की घोषणा संसदीय बोर्ड करेगा। लेकिन जालंधर में रविदासिया समाज के केंद्रीय राज्यमंत्री सोमप्रकाश को दोआबा की कमान दे रखी है, ताकि दलितों का वोट खींचा जा सके।
अकाली दल ने तो बसपा से दलित विधायक को डिप्टी सीएम बनाने की घोषणा कर रखी है। अकाली दल और बीएसपी ने 1996 के लोकसभा चुनाव में भी गठबंधन किया था और तब पंजाब में इस गठबंधन को जोरदार सफलता मिली थी। राज्य की 13 में से 11 लोकसभा सीटें इस गठबंधन ने झटकी थीं। अकाली दल को 8 और बीएसपी को 3 सीटें मिली थीं, लेकिन उसके बाद अकाली दल ने बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया और तब से यह गठबंधन 2020 तक चला था।
1996 की तरह 2022 में अकाली-बसपा पंजाब में तमाम राजनीतिक दलों का सफाया न कर दे, इससे पहले कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर बड़ी सियासी चाल चल दी थी।दलित वोट आमतौर पर कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल के बीच बंटता रहा है। बीच में बीएसपी ने इसमें सेंध लगाने की कोशिश की, लेकिन उसे भी एकतरफा समर्थन नहीं मिला। 2002 में कांग्रेस के 14 दलित प्रत्याशी विधानसभा पहुंचे थे, जबकि अकाली दल के 12 प्रत्याशी चुनाव जीते थे। वहीं, दलित सीटों पर भारतीय जनता पार्टी भी समय-समय पर उपस्थिति दिखाती रही है।
दीनानगर, नरोट मेहरा, जालंधर साउथ और फगवाड़ा रिजर्व सीटों पर भाजपा चुनाव लड़ी थी, लेकिन एक भी सीट नहीं मिली। साफ है कि दलितों ने कांग्रेस व अकाली दल को करीब करीब बराबर रखा, लेकिन भाजपा को नकार दिया था। 2007 में दलितों ने कांग्रेस से मुंह फेर लिया और पार्टी सत्ता में नहीं आ पाई। 2012 में भी दलितों ने कांग्रेस के स्थान पर अकाली दल का साथ देना बेहतर समझा, लिहाजा पंजाब में शिअद भाजपा गठबंधन दोबारा सरकार बनाने में कामयाब रहा।
पंजाब में 2017 में चुनावों में त्रिकोणीय मुकाबला हुआ, आम आदमी पार्टी ने दलित वोट बैंक में सेंध लगाई और पहली बार विधानसभा चुनाव लड़कर 9 दलित विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे और अकाली दल महज 3 पर आ गया, जबकि कांग्रेस ने 21 सीटें जीतीं। मतलब साफ है कि जिस पार्टी का दलित सीटों पर पताका फहराया, वह पार्टी विधानसभा में काबिज हुई है। ऐसा नहीं कि दलितों का प्रभाव केवल दोआबा में है, दलितों का वोट पूरे पंजाब में है। दोआबा में 37 फीसदी, मालवा में 31 फीसदी और माझा में 29 फीसदी दलित आबादी है। यह भी साफ है कि दलित वोटरों ने किसी एक पार्टी का दामन पक्के तौर पर नहीं थामा है। वोट बंटे, लेकिन एक पार्टी की तरफ नहीं गए। यहां तक कि बसपा भी पूर्ण रूप से दलितों के वोट को एकतरफा नहीं कर पाई। हालांकि यहां से बसपा संस्थापक कांशी राम भी चुनाव लड़ चुके हैं।